जब जब पृथ्वी पर भार बहुत अधिक हो जाता है तो प्रकृति कोई खेल दिखा कर भार घटा देती है


विश्व का इतिहास हमेशा हलचल भरा रहा है। इतिहास का अर्थ ही है, ऐसा घटित हुआ। इन घटनाओं के साक्षी इन्हें लिखते हैं तथा भावी पीढ़ियां शोध करती हैं। कुछ हलचल या आपदाएं मानव निर्मित होती हैं, तो कुछ प्रकृति प्रदत्त। इनमें से कुछ जिले, राज्य या देश तक सीमित रहीं, तो कुछ का प्रभाव विश्वव्यापी हुआ।


भारत के पश्चिमी राज्यों में 150 साल पहले चूहों से फैले प्लेग से लाखों लोग मारे गये थे। इसमें रोगी की जांघों में गांठें पड़ जाती थीं। उनमें बहुत दर्द होता था और अधिकांश लोग तीन-चार दिन में दम तोड़ देते थे। स्पर्शजनित रोग होने से इसके मरीज को गांव से बाहर रहना पड़ता था। उसे कोई छूता नहीं था। उसका सामान अलग रखा जाता था। सगे संबंधी भी मृतक का शव नहीं उठाते थे। उनकी अंत्यक्रिया शासन और कुछ समाजसेवी करते थे। यद्यपि उनमें से भी कुछ फिर रोगी हो जाते थे।


पुणे में प्लेग कमिश्नर रैंड के अत्याचार इतिहास के काले पृष्ठों में दर्ज हैं। पुलिस वाले घरों में जाकर कीमती सामान लूटते और महिलाओं का अपमान करते थे। पूजागृह में जूतों समेत चले जाते थे। कहीं सुनवाई नहीं थी। अंततः लोकमान्य तिलक से प्रेरित चाफेकर भाइयों ने उसे मार डाला। यद्यपि तीनों भाइयों को फांसी हुई; पर उससे पुणे और पूरे महाराष्ट्र में ये अत्याचार लगभग बंद हो गये।


1918 से 1920 तक दुनिया के कई देशों में ‘स्पेनिश फ्लू’ फैला। विश्व की चौथाई जनसंख्या (50 करोड़) इससे संक्रमित हुई, जिनमें से चार-पांच करोड़ लोग मारे गये। इससे बचाव के लिए तब भी तालाबंदी (लॉकडाउन), शारीरिक दूरी और मुखबंद (मास्क) का सहारा लिया गया था। भारत में यह प्रथम विश्व युद्ध से लौटे सैनिकों से फैला। इससे संक्रमित हजारों सैनिक पानी के जहाजों से मुंबई आये। यहां से वे रेलगाड़ी तथा अन्य वाहनों से अपने गांव गये। सारे रास्ते वे अनजाने में इसे बांटते गये, जिससे लगभग दो करोड़ लोग मारे गये।


1943-44 में बंगाल के अकाल (दि ग्रेट बंगाल फेमिन) की कहानी बहुत दुखद है। वर्तमान बांग्लादेश, बंगाल, उड़ीसा, झारखंड और आधा बिहार मिलाकर तब बंगाल राज्य था। द्वितीय विश्व युद्ध के उस दौर में ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने बंगाल में उत्पन्न अधिकांश चावल अपने और मित्र देशों के सैनिकों के लिए भेज दिया। बाकी व्यापारियों ने दबा लिया। इससे फैली भुखमरी से लगभग 40 लाख लोग और करोड़ों पशु मारे गये। लोग भूख से मरने की बजाय रेलगाड़ी के आगे कूद जाते थे। बच्चों को तिल-तिल मरता देखने से बचने के लिए माताएं उन्हें कुएं या नदी में फेंक देती थीं। यद्यपि द्वितीय विश्व युद्ध में मित्रदेश जीत गये; पर अगले चुनाव में चर्चिल हार गया।


देश के विभाजन से उत्पन्न त्रासदी का अपराधी भी ब्रिटिश शासन ही है। द्वितीय विश्व युद्ध ने उन्हें कंगाल कर दिया। अपनी सेना विभिन्न देशों में रखकर उन्हें दबाए रखना अब असंभव था। भारत में सैन्य विद्रोह फिर पनप रहा था। अत्यधिक जनसंख्या वाला यह महादेश भविष्य में उनके लिए समस्या न बने, अतः उन्होंने उसे धर्म के आधार पर बांट दिया।


बंटवारा होते ही दोनों ओर के करोड़ों लोग रातोंरात अपनी जान बचाकर अनजान क्षेत्रों के लिए चल दिये। यह विश्व इतिहास का सबसे बड़ा विस्थापन था। इसके साथ लूटपाट और मारकाट भी चल रही थी। पाकिस्तानी हिस्से में शासन की शह पर हिन्दुओं और सिखों को मारने या मुसलमान बनाने का क्रूर अभियान चल रहा था। इस दौरान लाखों लोग मारे गये। इसके लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली, लार्ड माउंटबेटन और सीमांकन करने वाले सर रेडक्लिफ को इतिहास माफ नहीं कर सकता। हां, इसके अपराधी वे भारतीय नेता भी हैं, जिन्हें देश की अखंडता से अधिक कुर्सी प्यारी थी।


चेचक का प्रकोप भी दुनिया भर में हजारों साल तक फैला रहा। भारत में पिछली सदी में इससे 31,000 लोग मारे गये। चेहरे पर चेचक के दाग लिये कुछ लोग आज भी मिलते हैं। इसका टीका बनने पर भारत में उसे लगाने का बड़ा अभियान छेड़ा गया। अतः 1975 में भारत इससे मुक्त हो गया। पोलियो महामारी को भी भारत हरा चुका है। अब तो बच्चों को निर्धारित अवधि में कई दवाएं दी जाती हैं, जिससे उसमें इन रोगों से लड़ने की शक्ति पैदा हो जाती है।


आजादी के बाद हुए युद्धों ने भारत के इतिहास ही नहीं, तो भूगोल में भी भारी हलचल पैदा की। पाकिस्तान ने 1947 में जन्म लेते ही जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया। इस समय हमें अपने स्वप्नदर्शी नेता की गलती से काफी बड़ा भाग खोना पड़ा, जो आज भी शत्रु के पास है। विश्वशांति के पैरोकार नेहरुजी की आंखें तब भी नहीं खुलीं। अतः 1962 में चीन के हमले में भी यही हुआ। 1965, 1971 और 1999 के युद्धों में हमारा हाथ ऊंचा रहा। तबसे वह लगातार आतंकवादी भेज रहा है। इन युद्धों में जहां हजारों लोग मारे गये, वहां आतंकवाद अब तक लाखों लोगों की बलि ले चुका है।


प्राकृतिक आपदाएं समय और सीमा नहीं देखतीं। 1947 के बाद कई बार हमने जन-धन का भारी नुकसान उठाया है। बिहार का अकाल (1966), आंध्र तथा तमिलनाडु में चक्रवात (1977), भोपाल गैस कांड (1984), गुजरात में सूखा (1987-88), 1991 में गढ़वाल और 1993 में लातूर का भूकंप, सूरत का प्लेग (1994), आंध्र में चक्रवात (1996), उड़ीसा में अकाल (1997), सतलुज की बाढ़ (2000), गुजरात में भूकंप (2001), महाराष्ट्र में वर्षा (2005), तमिलनाडु में सुनामी (2004), केदारनाथ त्रासदी (2013)....आदि सैकड़ों उदाहरण हैं। तराई में बाढ़ और समुद्रतटीय राज्यों में तूफान प्रायः आते ही रहते हैं। इन दिनों भी उड़ीसा और बंगाल चक्रवात से जूझ रहे हैं।


प्रख्यात अर्थशास्त्री माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत के अनुसार जब पृथ्वी पर भार बहुत अधिक हो जाता है, तो प्रकृति कोई खेल दिखाकर भार घटा देती है। बाढ़, अकाल, भूकंप, सुनामी, महामारी आदि ऐसे ही खेल हैं। इन आपदाओं के आंगन में ही दुनिया का इतिहास और भूगोल पला है; पर कोरोना का वर्तमान तांडव कब समाप्त होगा और तब तक इससे कितनी हानि हो चुकेगी, यह भविष्य के गर्भ में है।