अलाउद्दीन ख़िलजी के मकबरे पर आम आदमी का पैर,नियति का फेर


 मुहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान की कहानी के अनुसार सत्रह बार गौरी हारा, अठारहवीं बार जीता। सच का पता नहीं, लेकिन मुहम्मद गौरी के सेनापति कुत्बुद्दीन ऐबक को वफ़ादारी की गुलामी के बदले दिल्ली रियासत मिली। इतिहास के नाम पर जो लिखा गया है उस अनुसार युद्ध में गौरी के मारे जाने के बाद ऐबक ने दिल्ली अपने नाम कर ली थी। ऐबक एक गुलाम था, जो बादशाह बना। बचपन में उसे बेचा गया था किसी काजी को। कुत्बुद्दीन यतीम होकर पहले काजी का गुलाम रहा, फिर लुटेरे बादशाह गौरी का, और आख़िर में बादशाह हो जाने का नसीब पाया। उसने दिल्ली का बादशाह बनकर अपने बेचनेवाले को जमानेभर की दुआएं दी होंगी। 


लेकिन कुत्बुद्दीन की बादशाही उस एक ख़िलजियाना शाहकार के सामने बहुत छोटी है, जिसका नाम था अलाउद्दीन। दिल्ली का सबसे जोरदार बादशाह, जिसने तुर्कों से अलग और कहीं ज्यादा ताकतवर पहचान बनाई। कभी-कभी अपनी सलामती के वास्ते दिल्ली को बचाया भी। गुजरात में भीषण आक्रमण उसकी क्रूरता का उदाहरण है। उसने मदुरै तक अपनी हुकूमत कायम की। मंगोल गुलामों के सर काट रियाया को दिखाने सरेआम लटकाए। अमीर खुसरो जिसकी शान में तराने गढ़ता था। 


चाचा को मारकर तख़्त पाया था उसने। अपनी करतूतों के लिए कुत्बुद्दीन  सरीखा डर अलाउद्दीन को भी रहा होगा ख़ुदा का। इन दोनों के बहुत बाद आया मुगल औरंगजेब जैसे धर्म न बदलने पर हिंदुओं का कत्लेआम कर टोपी सीता था, खुदा की पनाह पाने।
अपने कुनबे को कत्ल करनेवाले सुल्तानों को ख्वाब में गुनाह सताते होंगे,  चैन की नींद पाने की आस में उन्होंने मजहब की चादर फैलाई। 
मध्यकालीन इतिहास के पन्ने उन जल्लाद बादशाहों की करतूतों से भरे हुए हैं, जिन्होंने कत्लेआम को जेहाद का जामा पहनाया। ख़िलजी खुद को सिकंदर से भी महान दिखाना चाहता था। उसने धर्म के हथियार से एकाधिकार बनाने की बदनीयती से मंदिर तोड़े। शासन और बाजार की व्यवस्था के नाम पर उसने भी धर्मांधता फैलाई। अपने से मुहब्बत में उसने कुतुब मीनार सरीखी मगर उससे भी ऊंची अपने नाम की 'अलाई मीनार' खड़ी करनी चाही।  मीनार एक मंजिल तक ही चढ़ पाई थी और वो अपनी मौत को प्यारा हो गया। और हां, असल का ख़िलजी पद्मावत के रणवीर सिंह  से उतना ही अलग था, जितना चील और कौव्वे में फ़ासला होता है।  ख़िलजी अनपढ़ होकर भी सिस्टम बनाना जानता था। कई जाने-माने इतिहासकार उसे दरिंदा नहीं समझदार और शक्तिशाली बताते हैं। 
कमोबेश आगे-पीछे आए ऐबक और ख़िलजी अपने ख्वाबों की मीनार को परवान चढ़ता देख न पाए। अपने नाम की मीनार की पहली मंजिल उनकी जिंदगी का आखिरी पड़ाव साबित हुई। 
आज अजीमोशान शहंशाह अलाउद्दीन ख़िलजी एक आम भारतीय के लिए बस इतना ही मायने रखता है जितना इस चित्र में दिख रहा है। क्या, कभी बुरे से बुरे ख्बाव में भी ख़िलजी ने अपने मकबरे को लेकर यह कल्पना की रही होगी! क्या आज उसकी नींद में चैन होगा! 


ख़ुदाई इंसाफ़! 


 लेखक अताह तापस चतुर्वेदी