गजलों की महफ़िल (दिल्ली) के लाइव मुशायरे के समापन समारोह पर संयोजक डॉ अमर पंकज ने समसामयिक ग़ज़ल विधा पर चर्चा करते हुए,अतिथि शायरों को धन्यवाद ज्ञापित कर अपनी बेहतरीन गजलों से श्रोताओं के दिल को लूटा,समापन समारोह में भी जमकर हुई तारीफ और हौसला अफजाई

साहित्य:: पंकज-गोष्ठी न्यास (पंजीकृत) के तत्वावधान में संचालित विख्यात साहित्यिक संस्था "ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली)" द्वारा 13 जुलाई 2020 से चलाए जा रहे, देश भर में लब्ध प्रतिष्ठित और लोकप्रिय आनलाइन लाइव @ ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) का गरिमाम समापन यद्यपि कि 13 दिसम्बर 2020 को विख्यात शायर श्री अशोक रावत जी की शानदार प्रस्तुति के साथ ही संपन्न हो गया था, परंतु ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) के एडमिन और संचालक, प्रमुख शिक्षाविद, प्रतिष्ठित इतिहासकार, और चर्चित साहित्यकार तथा दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डाॅ अमर नाथ झा, जिन्हें समकालीन ग़ज़लों की दुनिया में डाॅ अमर पंकज 'अमर' के नाम से जाना जाता है और जो हमारे समय के बड़े ग़ज़लकार हैं, की लाइव प्रस्तुति के बिना लाइव@ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) की कार्यक्रम श्रृंखला का समापन ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) की टीम को स्वीकार्य नहीं था। अतः टीम के सभी साथियों सहित लाइव हुए सभी कवियों शायरों ने आनलाइन मीटिंग करके तय किया कार्यक्रम की औपचारिक समाप्ति की घोषणा करने हेतु अमर पंकज जी 20 दिसम्बर 2020 को महफ़िल के पटल पर आनलाइन लाइव आएँगे और धन्यवाद ज्ञापन के अतिरिक्त आज की हिन्दुस्तानी ग़ज़लों के मुताल्लिक महफ़िल की सुचिंतित-सुविचारित राय रखेंगे तथा अपनी कुछ ग़ज़लें भी सुनाएंगे।तभी इस कार्यक्रम का समापन माना जाएगा।

ग़ज़लकारों की जमात में एक महत्वपूर्ण नाम होने के बावजूद स्वाभाव से संकोची अमर पंकज को सभी साथियों की यह बात स्वीकार करनी पड़ी और उनकी लाइव प्रस्तुति का शानदार कार्यक्रम 20 दिसंबर को सायंकाल 4 बजे से शुरू होकर5.10बजे तक चलकर संपन्न हुआ।

ज्ञातव्य है कि पिछले 7- 8 महीनों से कोरोना काल में निजी और सार्वजनिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आयी विसंगति से लगभग ठहर गयी सी ज़िंदगी को आभासी साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों से बड़ा बल मिला है। विभिन्न भाषाओं के साहित्य-प्रेमियों और साहित्यकारों द्वारा वर्ष भर चलाये जाने वाले कवि सम्मेलनों, मुशायरों, सम्मान समारोहों समेत हर प्रकार के आयोजनों पर जबसे रोक लग गयी है,लोगो की ज़िदंगी में ठहराव आने लगा तो सबकी अदम्य जीजिविषा ने फिर से हर परिस्थिति के अनुरूप अनुकूलन करने में लोगो को सक्षम बना दिया। इसी क्रम में गजलों की महफ़िल (दिल्ली)ने इस भीषण अवसाद की घड़ी में भी ज़िंदगी को ज़िंदादिली से जीने के लिये नये-नये रास्तों की तलाश कर लिया। ज़िंदगी की इसी खोज़ का परिणाम है कि नवीन संचार माध्यमों का सहारा लेकर यह साहित्यिक संस्था लोगो के अपने-अपने घरों में क़ैद होते हुये भी वेबीनार के माध्यम से साहित्य-समारोहों का आयोजन करने की तैयारी कर ली थी। महफ़िल के प्रयास से हमने देखा कि पिछले कुछ महीनों से साहित्यिक-साँस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन के निमित्त फेसबुक लाइव एक महत्वपूर्ण मंच बनकर उभरा है। फेसबुक लाइव के माध्यम से हम अपने पसंदीदा कवियों-शायरों से रूबरू होकर उनकी रचनाओं का रसास्वादन कर पा रहे हैं ।

      साहित्य और संस्कृति के संवर्धन में लगी हुई ऐतिहासिक संस्था "पंकज-गोष्ठी" भी निरंतर क्रियाशील है। "पंकज-गोष्ठी न्यास (पंजीकृत)" से संबद्ध यह साहित्यिक संस्था "गजलों की महफ़िल (दिल्ली)किसी परिचय की मुहताज नहीं है जिसने उपरोक्त फ़ेसबुक लाइव के माध्यम से लोगो की साहित्यिक जिजीविषा को शांत करने में सफल रही, जो कोरोना काल की लाज़वाब उपलब्धी रही है।

"पंकज-गोष्ठी न्यास (पंजीकृत)" के अध्यक्ष डाॅ विश्वनाथ झा ने हमारे संवाददाता को बताया कि "न्यास" की ओर से हम भारत के विभिन्न शहरों में साहित्यिक और साँस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करते हैं। इसी क्रम में "ग़ज़लों की महफिल (दिल्ली)" की ओर से आयोजित "लाइव @ ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली)" में शायरों के अलावा ग़ज़ल गायकों को भी सप्ताह में एक दिन आमंत्रित किया, ताकि पटल के शायरों की ग़ज़लों को स्वर बद्ध कर करके ग़ज़ल प्रेमियों तक पहुँचाया जा सके, साथ ही साथ नामचीन ग़ज़लकारों की ग़ज़लों को भी सुना सके। अतः 13 जुलाई 2020 से शुरु हुए, प्रख्यात संस्था "ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली)", की लाइव@ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) कार्यक्रम श्रृंखला शानदार तरीके से विगत पांच महीने से न सिर्फ़ सुचारू रूप से चलती रही, बल्कि देश के चोटी के शायरों ने इसमें शिरक़त करके इसे साहित्यिक गतिविधियों का अत्यंत ही प्रतिष्ठित और लोकप्रिय कार्यक्रम बना दिया। इसी कार्यक्रम श्रृंखला के पांचवें और अंतिम चरण की 38 वीं और अंतिम प्रस्तुति विगत 13 दिसंबर 2020 को हुई थी। इसी क्रम के अंतिम लाइव प्रस्तोता के रूप में पंकज गोष्ठी न्यास (पंजीकृत) के ट्रस्टी, ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) के संचालक और एडमिन तथा मेरे अनुज एवं आज के दौर के चर्चित शायर डाॅ अमर पंकज ने 20 दिसम्बर 2020 को ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) के पटल पर लाइव आकर पिछले पाँच महीने के दौरान महफ़िल के पटल पर आकर अपनी बेहतरीन प्रस्तुतियाँ देने वाले फ़नकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की।

डाॅ अमर पंकज ने अपने धन्यवाद ज्ञापन कार्यक्रम में ही हिन्दी ग़ज़ल के लिये भी अरूज़ के नियमों के पालन की अनिवार्यता पर बल देते हुए महफ़िल के आगामी कार्यक्रमों पर भी प्रकाश डाला।

लाइव@ ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) के नाम से चर्चित फेसबुक के इस लाइव कार्यक्रम की विशेषता यह है कि कार्यक्रम शुरू होने से पहले से ही, शाम 4 बजे से ही दर्शक-श्रोता पेज पर जुटने लगते हैं और कार्यक्रम की समाप्ति तक मौज़ूद रहते हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ, महफ़िल के इस धन्यवाद कार्यक्रम के ठीक 4 बजे अमर पंकज जी पटल पर उपस्थित हो गए और उन्होंने 13 जुलाई से 13 दिसम्बर तक पटल पर प्रस्तुतियाँ देने वाले सभी 38 फ़नकारों के प्रति अपनी टीम की ओर से और अपनी ओर से भी धन्यवाद ज्ञापित करते हुए जोर देकर कहा कि हिन्दी ग़ज़लों के नाम पर अरूज़ के नियमों से छेड़छाड़ की इजाज़त किसी को नहीं दी जानी चाहिए। लेकिन इसके साथ ही कथ्य के स्तर पर हिन्दी ग़ज़लों को रवायती उर्दू ग़ज़लों से आगे जाकर हिन्दी भाषा की प्रकृति के अनुरूप हिन्दी पट्टी के जन-जीवन की समस्याओं के प्रति वेदनशील होना चाहिए और आम जन की समस्याओं को मुखर होकर उठाना चाहिए तभी हिन्दी ग़ज़ल अपना ऐतिहासिक दायित्व पूराद कर सकेगी। 

आज की हिन्दुस्तानी ग़ज़लों की बारीकियों और अरूज़ की चर्चा करते हुए डाॅ अमर पंकज ने कहा कि ग़ज़लों के नाम पर चल रही अव्यवस्था के इस आलम में ग़ज़लकारों के सार्थक हस्तक्षेप की ज़रूरत है। ग़ज़लकारों के इसी सामूहिक हस्तक्षेप की मुहिम का नाम ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) है, और महफ़िल इस ज़िम्मेदारी को सचेत होकर पूरा करती रहेगी।

धन्यवाद ज्ञापन के क्रम में डाॅ अमर पंकज जी ने अपनी टीम के सभी साथियों; डाॅ दिव्या जैन जी , डाॅ यास्मीन मूमल जी, श्रीमती रेणु त्रिवेदी मिश्रा जी, श्री अनिल कुमार शर्मा 'चिंतित' जी, श्री पंकज त्यागी 'असीम' जी और डाॅ पंकज कुमार सोनी जी के प्रति भी अपना आभार प्रकट करते हुए उन्हें इस सफल आयोजन-श्रृंखला की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ प्रेषित की और कहा कि टीम के साथियों की लगन और परिश्रम के बल पर ही ग़ज़लों को समर्पित अदब की दुनिया का यह चर्चित और प्रतिष्ठित कार्यक्रम संपन्न हो सका।

इस तरह लाइव@ ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) कार्यक्रम श्रृंखला के धन्यवाद ज्ञापन के क्रम में ही डाॅ अमर पंकज जी ने अपनी कुछ ग़ज़लें भी सुनाईं जिन्हें कार्यक्रम में उपस्थित सभी उस्तादों और ग़ज़ल प्रेमियों की भरपूर दाद मिली। अपने लाइव के आख़िरी दौर में अमर पंकज जी जब तक अपना कलाम सुनाते रहे, रसिक दर्शक और श्रोतागण महफ़िल में जमे रहे।

उनकी कुछ बेहतरीन गजलों की जरा बानगी तो देखिए

(1)

तू वफ़ा कर न कर ज़िंदगी,

जी रहा मैं मग़र ज़िंदगी।

हर दिशा कह रही है मुझे,

हादसों का सफ़र जिंदगी।

कुछ मुझे भी पता तो चले,

जा रही है किधर ज़िंदगी।

रोज मैं दे रहा इम्तिहाँ,

इम्तिहाँ है अगर ज़िंदगी।

चल रहीं तेज हैं आँधियां,

पर अडिग है शजर ज़िंदगी।

छँट रही स्याह शब देखिये,

सुर्ख़ सी हर सहर ज़िंदगी।

लह्र में तैरना सीख़ ले,

हर तरफ़ है भँवर ज़िंदगी।

हादसे सिर्फ़ हैं हादसे, 

टूट मत इस क़दर ज़िंदगी।

हार क्या जीत क्या सोच मत, 

हर घड़ी है समर ज़िंदगी।

वक़्त हो गर बुरा, सब्र कर,

कह रही है 'अमर' ज़िंदगी।

(2)

भीड़ में शामिल कभी होता नहीं हूँ, 

बोझ नारों का कभी ढोता नहीं हूँ।

रात को मैं दिन कहूँ सच जानकर भी,

क्यों कहूँ मैं? पालतू तोता नहीं हूँ।

मुल्क़ की बर्बादियों को लिख रहा जो,  

मैं ही शाइर आज इकलौता नहीं हूँ।

झेलता हूँ हर सितम भी इसलिए मैं,

हूँ ग़ज़लगो धैर्य मैं खोता नहीं हूँ।

क्यों अचानक प्यार वह दिखला रहा है? 

हो न कोई हादसा, सोता नहीं हूँ।

हाथ मोती मत लगें पर सच नहीं है,

मैं लगाता सिन्धु में गोता नहीं हूँ।

ये कमाई उम्र भर की है कि काँटे, 

मैं किसी की राह में बोता नहीं हूँ।

ज़ुल्म से डर कर 'अमर' पीछे हटूँ क्यों,

मौत को भी देखकर रोता नहीं हूँ।

(3)

हर तरफ़ है मौत लेकिन प्यास बाकी है अभी,

ज़िंदगी की जीत होगी आस बाकी है अभी।

ये सफ़र कैसा सफ़र है ख़त्म होता ही नहीं,

ज़ीस्त के हर मोड़ पर बनवास बाकी है अभी।

धूप ओले आँधियाँ तूफ़ान सब मैं सह गया,

खंडहर सा हूँ पड़ा अहसास बाक़ी है अभी।

अनवरत चलना मुझे है थक नहीं सकता हूँ मैं,

हादसों में हौसला बिंदास बाकी है अभी।

आज हैं तनहाइयाँ गुलज़ार था गुज़रा जो कल, 

ज़िंदगी सौगात है विश्वास बाकी है अभी।

भीड़ है उमड़ी सड़क पर याद आया फिर वतन,

हमवतन हैं साथ पर उच्छ्वास बाकी है अभी।

लाॅकडाऊन से करोना की लड़ाई लड़ रहा,

भूख से तू लड़ 'अमर' उपवास बाकी है अभी।

(04)

इस चुनावी खेल में फिर आग की बरसात होगी,

ज़ह्र फैलाते हुए दिन नफ़रतों की रात होगी।

कब सुहानी सुब्ह होगी जगमगाती रात होगी,

सौ सुनहरे ख़्वाब की कब सच कोई भी बात होगी।

रात को वह दिन कहे है कैसे दिल माने इसे पर,   

आइना सच का दिखाने की किसे औकात होगी।

देखकर तेवर तुम्हारे अब यही लगने लगा है,

अम्न होगा या न होगा लूट अब दिन-रात होगी।

चाँदनी रोती रहेगी चाँद भी तन्हा रहेगा,

हसरतों की सिसकियाँ या अश्क की बारात होगी।

आँच मद्धम ही सही पर कोई लौ तो जल रही है,

मत बुझाना इस दिये को फिर से रोशन रात होगी।

धूप मीठी है 'अमर' तू खोल मन की खिड़कियों को,

मुस्कुराने दिल लगा क्यों कुछ न कुछ तो बात होगी।

(05) 

चाहते हो तुम मिटाना नफ़रतों का गर अँधेरा,

हाथ में ले लो किताबें जल्द आएगा सवेरा।

है जहालत का कुआँ गहरा बहुत मत डूबना तू,

लोग हों खुशहाल गुरबत ख़त्म हो ये काम तेरा।

ज़ह्र भी अमृत बने जो प्यार की ठंढी छुअन हो,

नाचती नागिन है बेसुध जब सुनाता धुन सपेरा।

गुफ़्तगू के चंद लमहों ने बदल दी ज़िंदगी अब,

बन गया सूखा शजर फिर से परिन्दों का बसेरा।

आग का मेरा बदन मैं आँख में सिमटा धुआँ हूँ,

इश्क़ में अब बन गया सुख चैन का ख़ुद मैं लुटेरा।

फिर 'अमर' आने लगे वो रात दिन ख़्वाबों में मेरे,

अपने बस में दिल नहीं अब दिल ने छोड़ा साथ मेरा।

(06) 

गीत फिर से दर्द के ही गा रही है ज़िंदगी,

बन अमावस रात काली छा रही है ज़िंदगी।

तू नहीं तो कह्र बन अब ढा रही है ज़िंदगी,

शख़्सियत थी क्या तेरी जतला रही है ज़िंदगी।

ज़िंदगी आसाँ नहीं कैसे जिएँ तेरे बिना,

रिक्तता का अर्थ अब समझा रही है ज़िंदगी।

दो क़दम का फ़ासला था भर न पाये हम जिसे,

सिसकियों की वज़्ह ये बतला रही है ज़िंदगी।

हर मुखोटा अब डराता रोज हमको इसलिए, 

क़द्र करना ख़ून का सिखला रही है ज़िंदगी।

शह्र में आकर तो हम रोबोट बनकर रह गये,

फिर से सपने गाँव के दिखला रही है ज़िंदगी।

सुब्ह हो या शाम तुझको हर पहर ढूँढे 'अमर',

जा बसा तू दूर पर झुठला रही है ज़िंदगी।

(07)

मैं ठहरता फिर भटकता ज़िंदगी के खेल में,

कुछ चहकता कुछ सिसकता ज़िंदगी के खेल में।

ताश का पत्ता समझकर फैंटते मुझको सभी,

मैं मगर सिक्का खनकता ज़िंदगी के खेल में।

की अँधेरों ने छिपाने की बहुत कोशिश मगर,

मैं सितारा बन चमकता ज़िंदगी के खेल में।

तोड़ सकती है नहीं मेरे इरादे हार भी,

हार कर भी मैं थिरकता ज़िंदगी के खेल में।

चौंक मत ख़ुशबू मेरी पहुँची है तेरे पास भी,

हर तरफ़ मैं ही महकता ज़िंदगी के खेल में।

दर्द को समझा दवा पर दर्द आख़िर दर्द है,

सब्र का प्याला छलकता ज़िंदगी के खेल में।

इस तरफ़ या उस तरफ़ तू है कहाँ कह दे 'अमर',

मौन तेरा अब खटकता ज़िंदगी के खेल में।

(08)

मेरा ग़म तेरी खुशी तो ये कज़ा मंज़ूर है,

फिर मुझे अपने किये की हर जज़ा मंज़ूर है।

गर ख़ता है इस जहाँ में चलना सच की राह पर,

तो हमें ऐसी ख़ता की हर सज़ा मंज़ूर है।

इस ज़मीं से उस फ़लक तक तू ही तू है हर जगह,

तू ख़ुशी दे या कि दुख तेरी रज़ा मंज़ूर है।

प्यार से मेरी तरफ़ देखा है तूने इस तरह,

डूबकर इस झील में मुझको क़ज़ा मंज़ूर है।

इस धरा पर भस्म जलकर हो असुर आतंक अब,

आग की आँधी चले ऐसी फ़ज़ा मंज़ूर है।

ढह रही जर्जर व्यवस्था शोक मत कर तू 'अमर',

नव सृजन करना अगर है तो अज़ा मंज़ूर है।

(09)

बीती सुधियों ने लौटाया खेतों में खलिहानों में,

जो खोया था फिर से पाया खेतों में खलिहानों में।

छोड़ चकाचौंध की माया लौटा जब मैं अपने घर तो,

कुदरत ने भी रस बरसाया खेतों में खलिहानों में।

महकी-महकी रातों में कुछ बहकी-बहकी बातों ने,

बाहें फैला पास बुलाया खेतों में खलिहानों में।

दुख ही दुख झोली में पाकर मुर्झाया चहरा जब तो,

अपनों ने ही दिल बहलाया खेतों में खलिहानों में।

झुर्री गालों पर है लेकिन लाली यादों में अब भी,

मन का बच्चा फिर मुस्काया खेतों में खलिहानों में।

माँ की हरदम हँसती आँखो में उमड़े जब भी आँसू ,

छुप-छुप कर रोया-पछताया खेतों में खलिहानों में।

बीते दिन क्या-क्या बीते कहतीं सूखी आखें सबकुछ,

आज 'अमर' ने खूब रुलाया खेतों में खलिहानों में।

(10)

रूह थी गिरवी तो केवल देह दिखलाते रहे,

रस्म इस बाज़ार का हम रोज समझाते रहे।

प्यार तो इक लफ़्ज़ है उसके हज़ारों रंग हैं,

देह की भाषा में ही हम प्यार जतलाते रहे।

भूख मुझको पेट की थी ज़िस्म के भूखे थे तुम

थी अलग मंज़िल मगर नज़दीक हम आते रहे।

एक सूरज एक धरती और मालिक एक है,

भेद फिर हममें है कैसे प्रश्न उलझाते रहे।

इक मसीहा तो कभी रौशन करेगा ये जहाँ,

हम अज़ल की रात से ही ख़ुद को भरमाते रहे।

खूब देखे हैं बदलते दौर इस महफ़िल ने भी,

मीर ग़ालिब और तेरी हम ग़ज़ल गाते रहे।

रात मेरी थी अँधेरी ख़त्म होने को न थी,

पर 'अमर' तुम दीप बनकर ज्योति फैलाते रहे।

इस तरह कहा जा सकता है कि अपनी धारदार और बेहतरीन ग़ज़लें सुनाकर डॉ अमर पंकज जी ने सभी श्रोताओं का दिल जीत लिया, यानी कि महफ़िल लूट ली।

डॉ अमर पंकज के व्यक्तित्व के विभिन्न रंग हैं जिनसे हम अनभिज्ञ हैं, आइए उनको और क़रीब से जानते हैं और एक नज़र डालते हैं डॉ साहब के विस्तृत जीवन परिचय पर-

नाम: डाॅ अमर नाथ झा

साहित्यिक नाम: डाॅ अमर पंकज 'अमर'

जन्म तिथि: 14-12- 1963

पिता: स्वर्गीय आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'

ग्राम: खैरबनी

पत्रालयः सारठ

जिला: देवघर (संताल परगना)झारखंड

शिक्षा: एम ए (इतिहास), पी एच डी

पेशा: अध्ययन-अध्यापन

वर्तमान पद: एसोसिएट प्रोफेसर

संस्थान: स्वामी श्रद्धांनंद महाविद्यालय ( दिल्ली विश्वविद्यालय) 

प्रकाशित पुस्तकें:

(1) संताल परगना का प्राचीन इतिहास (2012)

(2) संताल परगना की आंदोलनात्म पृष्ठभूमि (2012)

(3) संताल परगना का इतिहास लिखा जाना अभी बाकी है ( संपादित, 2012)

(4) भारतीय संस्कृति की समझ (2012)

(5) समय का प्रवाह और मेरी विचार यात्रा (2012)

(6) मेरी कविताएँ (2012)

(7) Religon Culture and History of Jharkhand: Study of the Baidyanath Cult (2017)

(8) Religion and Making of a Region: Study of Santal Pargnas (2017)

(9) स्नेह-दीप, उद्गार और अर्पणा (संपादित,2019)

(10) धूप का रंग आज काला है (2020)

(11) इतिहास लिखा जाना बाकी है (प्रेस में)

(12) हादसों का सफ़र ( शीघ्र प्रकाश्य)

महत्वपूर्ण अकादमिक संस्थाओं से संबद्धता:

(1) Life Member, All India History Congress, New Delhi

(2) Life Member, Institute of Historical Studies, Kolkata

अन्य सामाजिक संगठनों से संबद्धता:

(1) President: SRRWA (Shipra Rivera Residents Welfare Association (2006-2007)

(2) President: FIRWA (Federation of Indirapuram Residents Welfare Association (2007-2012)

(3) Convenor: Jharkhand Intellectual Forum (2002-2009)

(4) संयोजक: मातृभाषा मुक्ति वाहिनी (1990-1995)

(5) Chairman: Pankaj-Goshthi Trust (Rtd)

इनके अतिरिक्त देश की विभिन्न महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में इतिहास से संबंधित शोध-आलेख, वैचारिक निबंध, कविताएँ और ग़ज़लें प्रकाशित।राष्ट्रीय स्तर के कई सेमिनार में बतौर आमंत्रित वक्ता, मुख्य वक्ता व अध्यक्ष के रूप में भागीदारी।

साहित्यिक-सांस्कृतिक सक्रियता से हासिल सम्मान:

(1) राजकरण सिंह हिन्दी स्मृति सम्मान (दिल्ली, 2014)

(2) मिथिला शिरोमणि सम्मान ( रायपुर, 2018)

(3) साहित्य अनुसंधान सम्मान (दिल्ली, 2018)

(4) अवध साहित्य श्री सम्मान (लखनऊ, 2019)

आदि प्रमुख हैं।

व्यक्तितव और कृतित्व की समीक्षा:-

पेशे से शिक्षक और प्रवृत्ति से रचनाकार, डाॅ अमर पंकज या डाॅ अमर नाथ झा, बौद्धिक-विमर्श में इतिहास के विद्यार्थी और शोधार्थी हैं। भारतीय धर्म और संस्कृति के विभिन्न तत्वों और घटकों के गंभीर अध्येता व तटस्थ समीक्षक हैं।

14 दिसम्बर 1963 को जन्म लेने वाले डाॅ अमर पंकज तब के बिहार और आज के झारखंड के संताल परगना अंचल के देवघर जिले से ताल्लुक रखते हैं। आपकी प्रारंभिक शिक्षा अपने ही गाँव के "खैरबनी प्राथमिक विद्यालय" और फिर "सारठ मिडिल स्कूल" से हुई। तदुपरांत "बन्दाजोरी हाई स्कूल" से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आपने इंटरमीडिएट और स्नातक की शिक्षा संताल परगना महाविद्यालय, दुमका से प्राप्त की। स्नातकोत्तर की उपाधि "इतिहास" में दिल्ली विश्वविद्यालय से 1986 में प्राप्त की और तभी से (विगत 34 वर्षों से) दिल्ली विश्वविद्यालय के के स्वामी श्रद्धांनंद महाविद्यालय में इतिहास के आचार्य के रूप सेवारत हैं। डाॅ अमर पंकज सम्प्रति एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं।

इतिहासकार डाॅ अमर नाथ झा को साहित्य का संस्कार स्वर्गीय पिता आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ से विरासत में प्राप्त हुआ और अदब की दुनिया में उन्हें डाॅ अमर पंकज के नाम से पहचान और प्रसिद्धि मिली। 

पिता आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' तत्कालीन बिहार और आज के झारखंड के विश्रुत विद्वान साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी, शिक्षक होने के साथ-साथ प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी भी थे। तत्कालीन संताल परगना के "महेश नारायण साहित्य शोध-संस्थान" ने उन्हें 'आचार्य' की उपाधि से विभूषित तो किया ही था, संताल परगना के साहित्यकारों ने उनको केंद्र में रखकर "पंकज-गोष्ठी" जैसी प्रख्यात साहित्यिक संस्था का गठन भी किया था, जो 1955-1975 तक चलने वाला एक प्रचंड काव्यान्दोलन था। अपने पिता से प्राप्त इस साहित्यिक-साँस्कृतिक विरासत को सँजोने के लिये डाॅ अमर पंकज "पंकज-गोष्ठी न्यास (पंजीकृत)" के तत्वावधान में दो साहित्य मंचों "ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली)" और "वातायन" के तहत विभिन्न साहित्यिक-साँस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन में पिछले एक दशक से भी अधिक समय से तल्लीन हैं। पिछले वर्ष, "पंकज-जन्म शताब्दी वर्ष 2019" से "पंकज-गोष्ठी न्यास (पंजीकृत)" प्रत्येक वर्ष राष्ट्रीय स्तर पर एक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार को "पंकज स्मृति राष्ट्रीय साहित्य पुरस्कार" से सम्मानित भी करती है। वर्ष 2019 का यह सम्मानित पुरस्कार दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कथाकार एवं समालोचक डाॅ विक्रम सिंह को प्रदान किया गया है।

हिन्दी-भाषा एवं मातृभाषा की गरिमा की प्रतिष्ठापना हेतु सतत प्रयत्नशील रहने वाले एक प्रख्यात "भाषा आंदोलनकारी" की आपकी ख़ास पहचान रही है। "मातृभाषा मुक्ति वाहिनी", जो कभी भारतीय भाषाओं के प्रतिष्ठापनार्थ दिल्ली के विश्वविद्यालयों में चलने वाले प्रचंड आंदोलन का पर्याय थी, के आप संस्थापक-संयोजक थे।

डाॅ अमर पंकज 'अमर' देश भर में चले छात्र-युवा आंदोलनों और जनांदोलनों के सुपरिचित नाम भी रहे हैं। 1990-91 में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार और उस सरकार के सर्वाधिक महत्वपूर्ण काबीना मंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी जी के बीच चल रहे राजनीतिक द्वंद्व में बलि का बकरा बनाये जा रहे युवाओं के हितों के संवर्धन और संरक्षण की खातिर आपने स्वयं को झौंक दिया। पूरे उत्तर भारत के कई शहरों का दौरा करके वहाँ के युवाओं को संगठित किया और दिल्ली के बोट क्लब मैदान में एक विशाल रैली की। उसी क्रम में आगे दिल्ली विश्वविद्यालय के "क्रांति चौक" पर अनिश्चितकालीन उपवास किया जो तेरह दिनों तक चला। आपकी इन्हीं गतिविधियों के लिये न सिर्फ़ एक ही दिन में कई थाने की पुलिस ने अलग-आलग समय में आपको गिरफ़्तार किया, बल्कि यथास्थितिवादी शक्तियों द्वारा आपपर जानलेवा हमला भी किया गया और आपके सिर पर गंभीर चोटें आईं। आपको सिर्फ़ एक बार जानलेवा हमले का ही शिकार नहीं होना पड़ा बल्कि, 1990-1995 के दौर में तिहाड़ जेल की यात्रा समेत अन्य अनेक यातनाओं से भी आपको प्रताड़ित किया गया। प्रताड़ना का यह दौर अभी भी समाप्त नहीं हुआ है, किसी न किसी रूप में आप आज भी व्यवस्था-पोषक शक्तियों की प्रताड़ना झेल रहे हैं, लेकिन अपने सिद्धांतों से किसी भी तरह का समझौता करना आपने नहीं सीखा है।

एक प्रतिबद्ध राजनीतिक-सामाजिक-शैक्षिक कार्यकर्ता के रुप डाॅ अमर पंकज 1990-2010 के दो दशकों में निरंतर सक्रिय रहे। आप वर्ष 2004-2008 तक दिल्ली विश्वविद्यालय की सर्वोच्च अकादमिक संस्था, विद्वत परिषद (Academic Council) के माननीय निर्वाचित सदस्य भी रह चुके हैं। इसी दौरान आप दिल्ली विश्वविद्यालय की कई महत्वपूर्ण अन्य अकादमिक समितियों के सदस्य के रूप में अपनी महती भूमिका निभा चुके हैं।

1955-75 तक तबके बिहार और आज के झारखंड के संताल परगना में काव्यान्दोलन का पर्याय रही ऐतिहासिक साहित्यिक संस्था "पंकज-गोष्ठी" को आपने वर्ष 2009 में पुनर्जीवित किया।

"पंकज-गोष्ठी" की साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत को सँजोने-सँवारने के लिये वर्ष 2012 में आपने "पंकज-गोष्ठी न्यास(पंजीकृत)" का गठन किया।

"पंकज गोष्ठी न्यास (पंजीकृत)" के संस्थापक ट्रस्टी के रूप में आप भारत के अलग-अलग शहरों में सीमित संसाधनों के बावजूद, साहित्यिक-साँस्कृतिक कार्यक्रमों को आयोजित करा रहे हैं।

जैसा कि उपर उल्लेख किया जा चुका है, "पंकज गोष्ठी" काव्यान्दोलन के संस्थापक-सभापति तथा स्वतंत्रता सेनानी, हिन्दी भाषा-साहित्य के प्रकांड विद्वान, यशस्वी शिक्षक और "1950 के दशक" के अत्यंत ही महत्वपूर्ण हिन्दी कवि, स्वर्गीय आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज' के जन्मशती वर्ष (2019) से साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देने वाले राष्ट्रीय स्तर के एक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार को "आचार्य पंकज राष्ट्रीय स्मृति साहित्य पुरस्कार" से आप "पंकज-गोष्ठी न्यास (पंजीकृत) की ओर से सम्मानित भी कर रहे हैं।

इस तरह बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी डाॅ अमर पंकज सामाजिक समरसता और विश्वमानवाता के प्रबल पक्षधर हैं। आप मूलतः प्रेम-पथ के पथिक हैं। "देह" को "मुक्ति का साधन" और "साधना का मार्ग" मानने वाले दार्शनिक, डाॅ अमर पंकज की ग़ज़लें इनके जीवन दर्शन का सार हैं।

कहना नहीं होगा कि डाॅ अमर पंकज अपने युग के प्रतिष्ठित इतिहासकार के साथ-साथ चर्चित-लोकप्रिय ग़ज़लकार भी हैं। वर्ष 2020 की शुरुआत में प्रकाशित आपके ग़ज़ल-संग्रह "धूप का रंग आज काला है" ने एक समकालीन ग़ज़लकार के रूप में दूर-दूर तक आपकी ख्याति पहुँचाई है।

इस तरह डाॅ अमर पंकज, जो इतिहास, साहित्य और साहित्य-संस्कृति से संबन्धित लगभग 12 मानक प्रकाशित पुस्तकों के प्रतिष्ठित रचयिता हैं, "Baidyanath Cult" की अवधारणा को व्याख्यायित करने वाले और "Baidyanath Cult" जैसे अकादमिक पद गढ़ने वाले दुनिया के पहले इतिहासवेत्ता भी हैं।

लेकिन इन सबसे हटकर सम्प्रति अदब की दुनिया के एक महत्वपूर्ण चर्चित व प्रतिष्ठित शायर का नाम है डाॅ अमर पंकज।

संपर्क:

अमर पंकज 'अमर'(डाॅ अमर नाथ झा)

ई-मेल: amarpankajjha@gmail.com

फोन: 9871603621

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