कद्र कहाँ कोई करता है आजकल रिश्तों की !
तमाम रिश्ते घूम रहे हैं पहचान का संकट लिए !!
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रवैया ऐसा हो गया आदमी का अपने स्वार्थ में !
आदमी ही आदमी का खून पीने को आतुर है !!
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सामाजिक रिश्तों का अब तो कोई चलन ही नहीं !
औलादें मां बाप की नहीं तो फिर और किसकी !!
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स्वार्थ की की कसौटी पर ही रिश्तों का एहतराम है !
ज़रूरत आने पर लोग गैर को भी रिश्तेदार बताते हैं !!
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वक्त के साथ कुछ आदमी खिलवाड़ करते हैं रिश्तों से !
मेरी थाली में खाना खाकर भी आज पहचानता नहीं मुझको !!
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तेरे पास लुटाने को दौलत है अगर तो फ़िक्र मत कर !
कहने सुनने को तेरे पास रिश्तों की बड़ी श्रृंखला होगी !!
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करूं गुणगान मैं किसका उतारूं आरती मैं किसकी !
आज का आदमी भी रंग बदलता है बहुत जल्दी से !!
**************तारकेश्वर मिश्र जिज्ञासु कवि व मंच संचालक अंबेडकरनगर उत्तर प्रदेश !