ग़ज़लों की महफ़िल की 23 वी कड़ी में झारखंड-रत्न की उपाधि से विभूषित साहित्यकार और सिद्ध हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत गायक श्री परेश दत्त द्वारी जी ने ग़ज़ल गायकी को नए तरीके से प्रस्तुत किया,डेढ़ घंटे तक चला कार्यक्रम, जमे रहे श्रोता

साहित्य:: वर्तमान कोरोना काल में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में काफी विसंगति आ चुकी है, ऐसा लगता है कि ज़िंदगी ठहर सी गयी है! साहित्य का क्षेत्र भी इसके दुष्प्रभावों से अछूता नहीं बचा है। विभिन्न भाषाओं के साहित्य-प्रेमियों और साहित्यकारों द्वारा वर्ष भर चलाये जाने वाले कवि सम्मेलनों, मुशायरों, सम्मान समारोहों समेत हर प्रकार के आयोजनों पर रोक लग गयी है। लेकिन कहते हैं न कि मनुष्य की अदम्य जीजिविषा उसे हर परिस्थिति का अनुकूलन करने में सक्षम बना देती है, सो हम सबने इस भीषण अवसाद की घड़ी में भी ज़िंदगी को ज़िंदादिली से जीने के लिये नये-नये रास्तों की तलाश कर ली है। ज़िंदगी की इसी खोज़ का परिणाम है कि नवीन संचार माध्यमों का सहारा लेकर हम अपने-अपने घरों में क़ैद होते हुये भी वेबीनार या साहित्य-समारोहों का आयोजन कर रहे हैं। इसीलिए हम देख पा रहे हैं कि पिछले कुछ महीनों से साहित्यिक-साँस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन के निमित्त फेसबुक लाइव एक महत्वपूर्ण मंच बनकर उभरा है। फेसबुक लाइव के माध्यम से हम अपने पसंदीदा कवियों-शायरों से रूबरू होकर उनकी रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं ।


इसी क्रम में साहित्य और संस्कृति के संवर्धन में लगी हुई ऐतिहासिक संस्था "पंकज-गोष्ठी" भी निरंतर क्रियाशील है। "पंकज-गोष्ठी न्यास (पंजीकृत)" के तत्वावधान में चलने वाली प्रख्यात साहित्यिक संस्था "गजलों की महफ़िल (दिल्ली)" भी लगातार आॅनलाइन मुशायरों एवं लाइव कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है।


"पंकज-गोष्ठी न्यास (पंजीकृत)" के अध्यक्ष डाॅ विश्वनाथ झा ने हमारे संवाददाता को बताया कि "न्यास" की ओर से हम भारत के विभिन्न शहरों में साहित्यिक और साँस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करते हैं। 


डाॅ झा ने जानकारी देते हुए बताया कि  "ग़ज़लों की महफिल (दिल्ली)" की ओर से आयोजित "लाइव @ ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली)" में शायरों के अलावा ग़ज़ल गायकों को भी सप्ताह में एक दिन आमंत्रित करने के लिये गये निर्णय को सफलतापूर्वक लागू किया जा रहा है ताकि पटल के शायरों की ग़ज़लों को भी स्वर बद्ध करके ग़ज़ल प्रेमियों तक पहुँचाया जा सके, साथ ही साथ नामचीन ग़ज़लकारों की ग़ज़लों को भी सुना जा सके।


ग़ज़ल गायकी के इस कार्यक्रम की शुरुआत 15 अगस्त 2020 से करते हुए यह प्रख्यात संस्था, "ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली)", अपने लाइव कार्यक्रम श्रृंखला के दूसरे चरण में प्रवेश कर गयी थी। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए इस लाइव कार्यक्रम श्रृंखला का तीसरा चरण 13 सितंबर 2020, रविवार, से शुरु हुआ जिसके तहत झारखंड-रत्न की उपाधि से विभूषित साहित्यकार और सिद्ध हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत गायक श्री परेश दत्त द्वारी जी ने ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) की ग़ज़ल-गायकी के कारवाँ को आगे बढ़ाते हुए लाइव @ ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) की 23 वीं प्रस्तुति दी।



श्री परेश दत्त द्वारी जी जैसे प्रख्यात गायक के लाइव आने से मानो महफ़िल में ग़ज़ल-गायकी की गरिमा शिखर पर पहुँच गयी। अतः निःसंदेह कहा जा सकता है कि महफ़िल की आज की शाम को आदरणीय पंडित परेश दत्त द्वारी जी ने बुलंदी पर पहुँचा दिया।


     पंडित परेश दत्त द्वारी जी ठीक 4:00 बजे शाम पटल पर उपस्थित हो गए यऔर तबसे लगभग देढ़ घंटे तक अपनी दर्दिली आवाज़ में एक से बढ़कर एक ग़ज़लों को सुनाकर उन्होंने दर्शकों- श्रोताओं का दिल जीत लिया।


कार्यक्रम की शुरुआत उन्होंने महफ़िल के उस्ताद शाइर डाॅ कृष्ण कुमार बेदिल साहब की इस ग़ज़ल से की:


सोज़े-ग़म से पिघल गए आँसू।


चन्द शेरों में ढल गए आँसू।


 


लड़खड़ा तो गये थे पलकों पर,


वो तो कहिए संभल गये आँसू।


 


अपनी खामोशियों में गुम होकर,


आतिशे-ग़म से जल गये आँसू।


 


हमने कोशिश हज़ार की लेकिन,


जाने कैसे निकल गये आँसू ।


 


उनकी अदना सी एक तसल्ली पर,


उम्र भर को बहल गये आँसू। 


 


अपनी ही सोज़िशों में ऐ 'बेदिल'


शम्अ की तरह जल गये आँसू।


बेदिल साहब की इस ग़ज़ल पर उन्होंने ख़ूब तालियाँ बटोरीं।


इसके बाद जब उन्होंने महफ़िल के ही उस्ताद शाइर श्री ओमप्रकाश नदीम साहेब की ये ग़ज़ल गायी:


तुम मिले तो मुझे हर ख़ुशी मिल गई


ज़िन्दगी को नई रौशनी मिल गई


 


आपको मुझसे मिल कर ये हासिल हुआ


आपके हुस्न को आशिक़ी मिल गई


 


उस नहीं में भी हाँ का इशारा मिला


उस इशारे से फिर ज़िन्दगी मिल गई


 


और सब कुछ था मेरी कहानी में बस


इक परी की कमी थी परी मिल गई


 


तेरे होंटों ने लय ताल सुर दे दिये


मेरे होंटों को भी बाँसुरी मिल गई


तो मानो सभी इनकी गायकी में डूब गये।


नदीम साहब की इस ग़ज़ल के बाद परेश दत्त द्वारी जी ने जब महफ़िल के ही अज़ीम शाइर डाॅ पंकज कुमार सोनी जी यह गजल गायी:


रूठ कर फिर मान जाना,याद है अब भी मुझे,


तेरा वो नखरे दिखाना,याद है अब भी मुझे।


 


सुर्खरू चेहरे का तेरे, रंग मुझको याद है,


देख कर मुझको लजाना, याद हैअब भी मुझे।


 


वो नहीं था वेवफा पर लोग तो समझे यही,


मुझको ना आया निभाना,याद हैअब भी मुझे।


 


मद भरी जैसे सुराही छलके आँखो में तेरी,


तुझको ना आया पिलाना,याद है अब भी मुझे।


 


सुर्ख फूलों को किताबो में छुपा लेना मगर,


मुझसे मिलकर भूल जाना,याद है अब भी मुझे।


 


वस्ल की चाहत नही थी दिल को थी दिल की लगी,


प्यार मेरा था रुहाना,याद हैअब भी मुझे।


 


भूलने की वो अदा बाकी है पंकज आज भी,


मेरे थे तुम जाने जाना याद है अब भी मुझे


 तो मानो सभी कोई परेश दत्त द्वारी जी की गायकी के कायल हो गए।


फिर इन्होंने जब दुष्यंत कुमार की प्रसिद्ध ग़ज़ल:


  


कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये


कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये


 


यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है


चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये


 


न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे


ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये


 


ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही


कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये


 


वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता


मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये


 


जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले


मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये


---- दुष्यंत कुमार


गायी तो मानो इनकी गायी ग़ज़लों को सुनकर महफ़िल में शामिल सभी दर्शक-श्रोता दिल थामकर बैठ गये।


इसके बाद परेश जी ने रामावतार त्यागी जी की यह ग़ज़ल गायी:


वही टूटा हुआ दर्पण बराबर याद आता है 


उदासी और आंसू का स्वयंवर याद आता है 


 


कभी जब जगमगाते दीप गंगा पर टहलते हैं 


किसी सुकुमार सपने का मुक़द्दर याद आता है 


 


महल से जब सवालों के सही उत्तर नहीं मिलते 


मुझे वह गांव का भीगा हुआ घर याद आता है 


 


सुगंधित ये चरण, मेरा महक से भर गया आंगन 


अकेले में मगर रूठा महावर याद आता है 


 


समंदर के किनारे चांदनी में बैठ जाता हूं


उभरते शोर में डूबा हुआ स्वर याद आता है


इस पर भी उन्हें ख़ूब वाहवाही मिली। कार्यक्रम आगे बढता गया और लोग झूमते रहे।


फिर बारी आयी ग़ज़लों की दुनिया के बेताज बादशाह, ग़ज़लों के पर्याय मिर्ज़ा ग़ालिब के इस ग़ज़ल की।


बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे


होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे


 


इक खेल है औरंग-ए-सुलेमाँ मेरे नज़दीक


इक बात है एजाज़-ए-मसीहा मेरे आगे


 


जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मंज़ूर


जुज़ वहम नहीं हस्ती-ए-अशिया मेरे आगे


 


होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते


घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे


 


मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे


तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे


 


सच कहते हो ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा हूँ न क्यूँ हूँ


बैठा है बुत-ए-आइना-सीमा मेरे आगे


 


फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार


रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मेरे आगे


 


नफ़रत का गुमाँ गुज़रे है मैं रश्क से गुज़रा


क्यूँकर कहूँ लो नाम न उन का मेरे आगे


 


ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र


काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे


 


आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मेरा काम


मजनूँ को बुरा कहती है लैला मेरे आगे


 


ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यूँ मर नहीं जाते


आई शब-ए-हिज्राँ की तमन्ना मेरे आगे


 


है मौजज़न इक क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ूँ काश यही हो


आता है अभी देखिए क्या क्या मेरे आगे


 


गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है


रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मेरे आगे


 


हम-पेशा ओ हम-मशरब ओ हमराज़ है मेरा


'ग़ालिब' को बुरा क्यूँ कहो अच्छा मेरे आगे


चूँकि ग़ज़ल बहुत बड़ी है, इसलिए इनके कुछ चुनिंदा अशआर ही उन्होंने सुनाए।


ग़ालिब की ग़ज़ल और परेश जी की गायकी। कमाल का मणिकांचन योग था। उपस्थित सभी उस्ताद शायर वाह वाह करने लगे। महफ़िल का वातावरण पूरी तरह से गीतमय हो गया।


ग़ालिब के बाद परेश दत्त द्वारी जी ने जब ख़ुद अपनी लिखी ग़ज़ल भी सुनाई:


" ज़िंदगी मेरी है वीरान दयारों की तरह 


  है मुहब्बत मेरी बर्बाद बहारों की तरह.


 


मैनें ख़्वाबों में सजायी दिलों की महफ़िल 


है हक़ीक़त चंद ज़हरीले ख़ारों की तरह.


 


तेरी यादों से मिला करता हूँ तन्हाई में 


साँसे टूटतीं हैं खँडहर की दीवारों की तरह.


 


जल चुका दिल बहुत शम्म-ए-बेवफ़ाई में 


है मेरी आँखों में आँसू शरारों की तरह.


 


मेरी क़श्ती उम्मीदों की कब डूब चुकी 


अब तो लगता है भँवर भी कनारों की तरह.


(परेश दत्त द्वारी,झारखंड-रत्न),राँची.


तो सभी दर्शक-श्रोता अचंभित रह गये कि श्री द्वारी सिर्फ़ गायक ही नहीं बल्कि ख़ुद उत्तम कोटि के ग़ज़लगो भी हैं।


ग़ज़ल-गायकी के इस ऐतिहासिक कार्यक्रम का समापन पंडित परेश दत्त द्वारी जी ने ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) के संचालक व एडमिन तथा समकालीन चर्चित ग़ज़लगो डाॅ अमर पंकज की इस ग़ज़ल से की बेहतरीन प्रस्तुति से किया:


हर वक़्त आँसू पी रहा मैं बात है ये कम नहीं


इस दौर में भी जी रहा मैं बात है ये कम नहीं


 


इंसाफ़ की कैसी डगर तन-मन हुआ घायल मेरा


हर घाव को पर सी रहा मैं बात है ये कम नहीं


 


फैली हुई है आज ज़हरीली हवा चारों तरफ़


पर साँस ले फिर भी रहा मैं बात है ये कम नहीं


 


मुझको डराती है नहीं अब तीरगी मैं हूँ दिया


बिन तेल जलता ही रहा मैं बात है ये कम नहीं


 


सूखी हुई लकड़ी कहो क्या नर्म हो सकती 'अमर'


उस पर लगाता घी रहा मैं बात है ये कम नहीं


डाॅ अमर पंकज जी की इस ग़ज़ल को अपने अद्भुत अंदाज़ में, अपनी गायकी में डूबकर जब परेश जी ने गाया तो उपस्थित दर्शक-श्रोता भी मानो उनकी अद्भुत गायकी में डूब से गये। वाह वाह की झड़ी लग गयी और कैसे देढ़ घंटे बीत गए, पता ही नहीं चला।


मंत्रमुग्ध होकर हम सभी परेश जी को सुनते रहे, पर दिल है कि भरा नहीं।


कार्यक्रम के बाद हमारे संवाददाता ने परेश जी से उनकी संगीत यात्रा के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि'मैं 1978 से 2017 तक आकाशवाणी-सुगम संगीत कलाकार रह चुका हूँ, जहाँ मैंने सिर्फ अपनी कम्पोजिशन्स में अनेक गीत और भजन गाए हैं. अभी भी मैं आकाशवाणी से बाहर नहीं हुआ हूँ परन्तु २०१७ के बाद अभी तक कोई पत्र वहाँ से नहीं मिला है इसलिये ईमानदारी से मैंने वही कार्यकाल लिखा.यह देशभर के रेडियो-कलाकारों (गायन)की पारी से निश्चित ही एक लम्बी पारी है.1978 से आकाशवाणी,पटना से जुड़ा रहा और फिर 1985 से आकाशवाणी,राँची से आ जुड़ा.


दूसरी बात यह कि आज तक मैंने देश के अनेक दिग्गज कवियों-गीतकारों (निराला,पन्त,प्रसाद,वर्मा,गुप्त,दिनकर,आरसी प्रसाद सिंह जैसे अनेक )की रचनाएँ संगीतबद्ध कीं और कर रहा हूँ. जो कि संगीत-जगत के लिये एक महत्वपूर्ण कार्य है.


पंडित परेश दत्त द्वारी जी की गायकी की एक ख़ास खूबी ये रही कि बिना तबले की संगत के भी सिर्फ़ तंबूरे के साथ ही ग़ज़लें गाकर उन्होंने न सिर्फ़ सबको बाँधे रखा बल्कि अपनी दर्द भरी आवाज़ से सबका दिल जीत लिया।


डाॅ कृष्ण कुमार बेदिल, श्री ओमप्रकाश नदीम,डाॅ पंकज कुमार सोनी और डाॅ अमर पंकज की ग़ज़लों को अपनी बेहतरीन धुन देकर जब इन्होंने गाया तो मानो ग़ज़ल का कथ्य मूर्त रूप लेकर सबकी आँखों में तैरने लगा। यह परेश दत्त द्वारी जी की गायकी का कमाल था।


इस तरह कहा जा सकता है कि सुधी साहित्यकार और साधक गायक पंडित परेश दत्त द्वारी जी ने आज के लाइव@ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) के कार्यक्रम को ऐतिहासिक बना दिया। वास्तव में इन्होंने श्रोताओं का दिल जीत लिया, यानी कि महफ़िल लूट ली।


पंडित परेश दत्त द्वारी जी के इस कार्यक्रम को फ़ेसबुक पर लाइव देखने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें 


https://www.facebook.com/groups/1108654495985480/permalink/1502439853273607/


   लाइव@ ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) के नाम से चर्चित फेसबुक के इस लाइव कार्यक्रम की विशेषता यह है कि कार्यक्रम शुरू होने से पहले से ही, शाम 4 बजे से ही श्रोता पेज पर जुटने लगते हैं और कार्यक्रम की समाप्ति तक मौज़ूद रहते हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ, महफ़िल की 23 वीं कड़ी के रूप में परेश दत्त द्वारी जी जब तक ग़ज़लें सुनाते रहे, रसिक दर्शक और श्रोतेगण महफ़िल में भाव विभोर होकर डूबे रहे।



पंकज गोष्ठी न्यास द्वारा आयोजित लाइव @ ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) के इस कार्यक्रम का समापन टीम लाइव @ ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) की ओर से डाॅ अमर पंकज जी के धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ।


कार्यक्रम के संयोजक और ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) के एडमिन डाॅ अमर पंकज ने लाइव प्रस्तुति करने वाले झारखंड रत्न की उपाधि से सम्मानित मशहूर गायक आदरणीय पंडित परेश दत्त द्वारी जी के साथ साथ दर्शकों-श्रोताओं के प्रति भी आभार प्रकट किया और सबों से अनुरोध किया कि महफ़िल के हर कार्यक्रम में ऐसे ही जुड़कर टीम लाइव @ ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) का उत्साहवर्धन करते रहें।


डाॅ अमर पंकज ने टीम लाइव @ ग़ज़लों की महफ़िल (दिल्ली) के सभी साथियों, डाॅ दिव्या जैन जी , डाॅ यास्मीन मूमल जी, श्रीमती रेणु त्रिवेदी मिश्रा जी, श्री अनिल कुमार शर्मा 'चिंतित' जी, श्री पंकज त्यागी 'असीम' जी और डाॅ पंकज कुमार सोनी जी के प्रति भी अपना आभार प्रकट करते हुए उन्हें इस सफल आयोजन-श्रृंखला की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ प्रेषित की।