8 नवंबर 1927 को अविभाजित भारत के सिंध प्रांत में उस महान आत्मा ने जन्म लिया जिसने अयोध्या के राम मंदिर की पहली नींव रखी थी। आज हम उन्हें लाल कृष्ण आडवाणी के नाम से जानते हैं। पिता कृष्णचंद आडवाणी और माता थी ज्ञानी देवी। शुरुआती पढ़ाई पाकिस्तान के कराची में हुई और बाद में सिंध के कॉलेज में दाखिला लिया। 1947 को जब देश का विभाजन हुआ तब लाल कृष्ण आडवाणी का परिवार पाकिस्तान छोड़ भारत के उस समय बंबई कहे जाने वाले मुंबई में आकर बस गए। मुंबई आने के बाद उन्होंने कानून कि पढ़ाई पूरी की। बचपन से ही देश के लिए कुछ कर गुजरने की इच्छाशक्ति ने उन्हें इस काबिल बनाया कि मात्र 14 वर्ष की उम्र में ही वो संघ से जुड़ गए थे। और यही से शुरू होता है उनके उप - प्रधानमंत्री बनने तक का सफर। देश जब आजाद हुआ तब 1951 में वो श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा जनसंघ से जुड़ गए। इस दौरान उन्होंने भारतीय राजनीति को सही ढंग से परखा और बहुत बारीकी से उसकी अहमियत को जाना। वर्ष 1977 में लाल कृष्ण आडवाणी जनता पार्टी से जुड़े और उसके बाद 1980 को जब भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ तो वो उसके साथ जुड़ गए। कहा जाता है कि भाजपा के साथ जुड़ने के बाद लाल कृष्ण आडवाणी ने भारतीय राजनीति की धारा को ही बदल दिया। हिन्दुस्तान में हिंदुत्व की अलख जगाने वाले वो पहले नेता थे। आधुनिक भारत में किसी ने नहीं सोचा था हिंदुत्व का मुद्दा इस कदर अन्य मुद्दों पर हावी होगा की सब पीछे छूट जाएगा। और उनका हिंदुत्व का ये प्रयोग सफलता के रंग दिखाने लगा। 1984 में दो सीटों पर सिमटी भाजपा को 2019 में 303 सीट दिलाने वाला हिंदुत्व का एजेंडा लाल कृष्ण आडवाणी की ही देन है। आखिर इतना बड़ा बदलाव हुआ कैसे, ऐसा कौनसा वो मोड़ था जिसने भाजपा को फर्श से अर्श पर पहुंचा दिया। बात 1980 की है जब विश्व हिन्दू परिषद ने राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू कर चुकी थी, लेकिन कोई बड़ा चेहरा ना होने की वजह से आंदोलन को कोई राजनीतिक संरक्षण हासिल नहीं था। आडवाणी इस मौके को तुरंत भांप गए। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस की लहर थी, जिसके अलग भाजपा एकदम शांत थी और सिर्फ 2 ही सीट पर कब्जा जमा पाई थी। 1989 में भाजपा ने राम जन्म भूमि आंदोलन को औपचारिक रूप से समर्थन देना शुरू कर दिया था। पार्टी ने अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का वादा अपने घोषणा पत्र में भी शामिल किया। जिसके बाद आडवाणी खुलकर इसके समर्थन में आ गए। इसका फायदा भाजपा को लोकसभा चुनाव में देखने को मिला जब पार्टी ने 2 सीट से बढ़कर 86 सीटों पर कब्ज़ा जमाया। इसके बाद तो मानो आडवाणी को समझ आ गया कि राम ही उनकी पार्टी की नैया को नदी पार करा सकते हैं। और उन्होंने राम मंदिर निर्माण की माला का जाप शुरू करवा दिया। आडवाणी पूरी ताकत के साथ इस आंदोलन में जुड़ गए। रणनीति के तहत उन्होंने रथयात्रा की घोषणा की। इसके लिए उन्होंने गुजरात के सोमनाथ मंदिर को प्रस्थान बिंदु चुना और उस रथयात्रा के पहिए थमने की जगह अयोध्या। उस रथयात्रा में सबसे जरूरी चीज ये दोनों स्थान थे क्योंकि हिंदुओ का मानना था कि ये दोनों ही स्थान इस्लामी शासकों द्वारा हमले का शिकार हो चुके थे, और हिन्दुओं की आस्था के दोनों प्रतीक भगवान राम और भगवान शिव के मंदिरों को नुक़सान पहुंचाया गया। आडवाणी ने 25 सितंबर 1990 को राममंदिर निर्माण के लिए समर्थन जुटाने हेतु सोमनाथ से रथयात्रा शुरू कर दी। वो रथयात्रा ही थी जिसके दौरान आडवाणी ने अपने जोशीले और तेजस्वी भाषणों की वजह से हिंदुओ में एक अलग जोश भर दिया और वो हिंदुत्व के सबसे बड़े नायक बनकर उभरे। हिंदी पट्टी राज्यों में आडवाणी की लोकप्रियता का ग्राफ इतना बढ़ गया कि उनका डंका बजने लगा। आडवाणी की इस रथयात्रा से भारत में हिन्दू मुस्लिम समुदाय के बीच सांप्रदायिक तनाव का भाव पनपना शुरू हुआ। रणनीति के तहत आडवाणी का इरादा राज्य दर राज्य होते हुए 30 अक्टूबर तक उत्तर प्रदेश के अयोध्या पहुंचने का था, जहां वो मंदिर निर्माण शुरू करने के लिए होने वाली कारसेवा में शामिल होना चाहते थे। लेकिन आडवाणी के बरकश ही बिहार में एक ऑपोजिट धुरी की राजनीति जन्म ले चुकी थी, जिसके नायक थे लालू प्रसाद यादव। जो 1975 के जेपी आंदोलन के बाद से ही सक्रिय राजनीति में उतरे थे। लालू यादव आडवाणी की उल्ट राजनीतिक विचारधारा को जन्म दे रहे थे। 23 अक्टूबर को जब आडवाणी की रथयात्रा बिहार के समस्तीपुर पहुंची तब बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव के आदेश पर उन्हें और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन बावजूद इसके आडवाणी ने अपनी रथयात्रा को उसके असली मकसद तक पहुंचाया। आज आडवाणी सामाजिक और राजनीतिक जीवन की सक्रियता से कोसो दूर है। सोशल मीडिया पर भी उनका कोई खाता नहीं है, लोगों से जुड़े रहने के लिए उनका एक ब्लॉग जरूर है, जिसपर वो लंबे अंतराल के बाद कुछ लिखते हैं। शतायु की ओर प्रस्थान कर रहे भाजपा के लौहपुरूष आडवाणी अपने समकक्षों को खो चुके हैं। अटल बिहारी वाजपेई, भैरों सिंह शेखावत, कैलशपती मिश्र, मदन लाल खुराना, सुंदर लाल पत्वा जैसे दोस्तों को उन्होंने अपने सामने विदा किया। आज आडवाणी उस मोड़ पर खड़े हैं जहां से उनका लंबा सियासी अतीत और देश में तेजी से बदलते घटनाक्रमों के ऐतिहासिक गवाह के रूप में उन्हें जाना जाता है। आजादी के बाद बदलते देश और सियासत के वो चंद चेहरों में शामिल रहे हैं जिनके अनुभव का आज भी कोई नेता सानी नहीं है।
लेखक - पुनीत गोस्वामी (मीडिया सलाहकार - उत्तर प्रदेश कृषि अनुसन्धान परिषद)