साहित्य:: वर्तमान कोरोना काल में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में काफी विसंगति आ चुकी, साहित्य की एक विधा कवि सम्मेलनों, मुशायरों के आयोजन पर भी इसका प्रभाव पड़ा है इसी कारण एक नया माध्यम तलाशा गया। फेसबुक लाइव के माध्यम से हम अपने पसंदीदा कवि, शायर को जीवंत रूप में सुन कर आनन्द उठा सकें।13 जुलाई को4 बजे इसी माध्यम का प्रयोग कर प्रख्यात साहित्यिक संस्था गजलों की महफ़िल (दिल्ली) ने से साहित्य प्रेमियों को ग़ज़ल विधा का लुफ़्त दिलाया है
संस्था अध्यक्ष डॉ विश्वनाथ झा,पंकज गोष्ठी न्यास, से हमारे संवाददाता को बताया कि पंकज गोष्ठी न्यास की ओर से भारत के बहुत से शहरों में हम साहित्यिक और सामाजिक कार्यक्रम आयोजित करते रहते हैं। उसी कार्यक्रम की कड़ी के रूप में ग़ज़लों की महफिल (दिल्ली) की ओर से थी ग़ज़लों की आज की जीवंत प्रस्तुति, जिसे पहली ही आवाज़ मिली हिंदी-उर्दू ग़ज़ल गोई की दुनिया के जाने माने उस्ताद श्री शरद तैलंग साहेब की!
उन्होंने बताया कि शरद तैलंग साहेब को मंच पर लाना इतना भी आसान नहीं! खुद तैलंग साहेब के शब्दों में -
"सभी बेताब रहते हैं सदा गजलें सुनाने को
शरद में बात है वह जो कहां औरों में आती है"
मंत्रमुग्ध होकर लगभग एक घंटे उन्हें हम सभी सुनते रहे पर दिल है कि भरा नहीं।
मौसम बरसात का है और बरसात के मौसम वाली अपनी ग़ज़ल से महफिल का आग़ाज़ करते हुए शायर ने पढ़ा
"जब से छाई आसमां पर बदलियां बरसात में
तब से आशंकित हैं निचली बस्तियां बरसात में"
और यह शुरुआत अलग-अलग रंगों में शरद जी को दिखाते हुए अपने उरूज तक पहुंची। देखिए शायर के दिल का दर्द कैसे सबका दर्द बन जाता है-
"बहुत से लोग नंगे पांव जब सड़कों पे चलते हैं
उन्हें बस देखने से ही हमारे पैर जलते हैं"
सच ही कहा गया है-
"बुजुर्गों की बदौलत ही रवायत है अभी जिंदा
नहीं तो हम सभी बस वक्त के सांचे में ढलते हैं"
और आखिरी ग़ज़ल में अपने जीवन के अनुभवों का निचोड़ रखते हुए, उस ज़ाती अनुभव को सार्वजनीन अनुभव बनाते हुए कितनी सादगी से यह व्यंग्य कह डाला है-
"फ़लक में चांद और तारे सभी मिलजुल के रहते हैं
यही एक बात सूरज को सदा रह रह जलाती है"
एक सकारात्मक सोच वाले बहुत ही गुरु गंभीर शेर के साथ ग़ज़ल की यह महफि़ल अपने अंजाम तक पहुंची-
"नया क्या है जलाते वक्त बस्ती, हाथ जल जाएं!
बुझाने में जले तो आपकी फितरत बताती है!"
वाह-वाह, वाह-वाह, तैलंग साहेब। आपको पहली बार सुना, आपकी गायकी की एक आध बानगी भी सुनने को मिली- अजहुं न आए बालमा सावन बीता जाए
का करूं सजनी आए ना बालमा।
संस्कृत काव्य शास्त्र में कहा गया है "जयंति ते सुकृतिन: कविना: रस सिद्धा कवीश्वरा:। नास्ति येषां रस: काये जरा मरणच भयम् ।
अपनी रससिद्धि के कारण कवि, शायर, गजलगो अपनी भावनाओं को ऐसी ऊंचाई प्रदान करता है कि यह सब की भावना बन जाती है। और यही तैलंग साहेब की ग़ज़लों में हमें मिला।
हमारी संचालिका द्वय डॉक्टर यास्मीन मामूल और डॉक्टर दिव्या जैन के क्या कहने! पिछले दो दिनों से शरद तैलंग साहेब के बारे में हम सबको जनाती रह रही थीं, जगाती रह रही थीं।यह उन्हीं दोनों के खूबसूरत मंच संचालन का कमाल है कि कार्यक्रम इतना सफल हो पाया है। आप दोनों का हार्दिक आभार।
ख्याति लब्ध शायर, कवि डॉ कृष्ण कुमार बेदिल ने अपनी उपस्थिति से इस महफिल को गरिमा प्रदान की है। उनके लिए धन्यवाद कहना काफ़ी नहीं होगा। हम उन्हें ससम्मान प्रणाम करते हैं।
आप सभी ख़वातीनो हज़रात ने अपनी गरिमामय उपस्थिति और दाद से महफ़िल में ज़िंदादिली बनाए रखी। आप सबका दिल से शुक्रिया।
महफ़िल की पहली प्रस्तुति ही नायाब रही।हमें उम्मीद है कि पंकज त्यागी साहब की अगली प्रस्तुति भी बहुत खूबसूरत होगी, बहुत अर्थ वान होगी।
हमें उम्मीद है आप सबका सहयोग हमेशा की तरह हमें मिलता रहेगा। पंकज गोष्ठी न्यास की तरफ से आप सभी मित्रों का हृदय से आभार।