हिंदी फिल्मों की हीरोइन नंदा 53 साल की उम्र शादी की तैयारी की पर खुदा को मंजूर न हुआ,हादसे ने उजाड़ी दुनिया


बॉलीवुड की मशहूर अदाकरा रहीं नंदा की आज पुण्यतिथि है । नंदा ने आज ही के दिनद 2014 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। नंदा अपने दौर की बेहद खूबसूरत और लाजवाब अदाकारा थीं। जब बॉलीवुड में नंदा ने काम करना शुरू किया था तो उनकी छवि 'छोटी बहन' की बन गई थी। क्योंकि पांच साल की उम्र में उन्होंने हीरो की छोटी बहन के रोल करने शुरू कर दिए थे लेकिन बाद में उन्होंने अपनी पहचान बदली और हीरोइन बनीं । नंदा ने फिल्म 'जब-जब फूल खिले', 'गुमनाम' और 'प्रेम रोग' जैसी हिट फिल्मों में काम किया है। नंदा की फिल्मों में उनकी एंट्री की कहानी बड़ी ही दिलचस्प है।


साल 1944, वो पांच साल की थीं। एक दिन जब वो स्कूल से लौटीं तो उनके पिता ने कहा कि कल तैयार रहना। फिल्म के लिए तुम्हारी शूटिंग है। इसके लिए तुम्हारे बाल काटने होंगे। बता दें कि नंदा के पिता विनायक दामोदर कर्नाटकी मराठी फिल्मों के सफल अभिनेता और निर्देशक थे। बाल काटने की बात सुनकर नंदा नाराज हो गईं। उन्होंने कहा, 'मुझे कोई शूटिंग नहीं करनी।' बड़ी मुश्किल से मां के समझाने पर वो शूटिंग पर जाने को राजी हुईं। वहां उनके बाल लड़कों की तरह छोटे-छोटे काट दिए गए। इस फिल्म का नाम था 'मंदिर'। 



इसके निर्देशक नंदा के पिता दामोदर ही थे। फिल्म पूरी होती इससे पहले ही नंदा के पिता का निधन हो गया। घर की आर्थिक हालत बिगड़ने के चलते नंदा के छोटे कंधों पर जिम्मेदारी का बोझ आ गया। मजबूरी में उन्होंने फिल्मों में अभिनय करने का फैसला लिया। चेहरे की सादगी और मासूमियत को उन्होंने अपने अभिनय की ताकत बनाई । वो रेडियो और स्टेज पर भी काम करने लगीं। नन्हे कंधों पर परिवार की जिम्मेदारी उठाए हुए नंदा महज 10 साल की उम्र में ही हीरोइन बन गईं। लेकिन हिन्दी सिनेमा की नहीं बल्कि मराठी सिनेमा की।


दिनकर पाटिल की निर्देशित फिल्म ‘कुलदेवता’ के लिये नंदा को पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विशेष पुरस्कार से नवाजा था। नंदा ने कुल 8 गुजराती फिल्मों में काम किया। हिंदी में नंदा ने बतौर हीरोइन 1957 में अपने चाचा वी शांता राम की फिल्म 'तूफान और दिया' में काम किया था। 1959 में नंदा ने फिल्म 'छोटी बहन' में राजेंद्र कुमार की अंधी बहन का किरदार निभाया था। उनका अभिनय दर्शकों को बहुत पसंद आया। उस दौरान लोगों ने नंदा को सैकड़ों राखियां भेजी थीं। इसी साल राजेंद्र कुमार के साथ उनकी फिल्म 'धूल का फूल' सुपरहिट रही। 


इस फिल्म ने नंदा को बुलंदियों पर पहुंचा दिया। बहन के रोल उनका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। नंदा एक बार फिर 1960 की फिल्म काला बाजार में देवआनंद की बहन बनीं। नंदा ने सबसे ज्यादा 9 फिल्में शशिकपूर के साथ कीं। उन्होंने उनके साथ 1961 में ‘चार दीवारी’ और 1962 में ‘मेंहदी लगी मेरे हाथ’ जैसी फिल्में कीं लेकिन शशिकपूर के साथ सुपरहिट फिल्म रही ‘जब जब फूल खिले’। कई हिट फिल्में देने के बावजूद नंदा की अभिनय प्रतिभा का सही इस्तेमाल कम ही किया गया। शायद उनके अभिनय का पारखी निर्देशक उनकी किस्मत में नहीं था। नाजुक, छुई-मुई और प्यारी सी लड़की की छवि को तोड़ने के लिए नंदा छटपटा रही थीं।


राजेश खन्ना के साथ फिल्म ‘इत्तेफाक’ (1969) में उन्होंने निगेटिव किरदार तक निभाया, लेकिन दर्शक उनका ये रूप नहीं स्वीकार सके। तभी उन्हें फिल्म ‘नया नशा’ (1973) ऑफर हुई। इसमें नंदा ने ड्रग एडिक्ट की भूमिका निभाई, लेकिन फिल्म फ्लॉप हो गई। नंदा को समझ आ गया कि उनके सहज और स्वाभाविक अभिनय को ग्लैमर का रंग देने की कोशिश में उनकी अपनी पहचान ही खत्म हो जाएगी। इसके बाद नंदा ने ‘असलियत’ (1974), ‘जुर्म और सजा’ (1974) और ‘प्रयाश्चित’ (1977) जैसी फिल्में कीं, लेकिन नंदा का समय खत्म हो गया था। 


इसका एहसास उन्हें भी था इसलिए उन्होंने बेहद शालीनता से खुद को रुपहले पर्दे की चकाचौंध से अलग कर लिया। परिवार की जिम्मेदारियां उठाने में उन्हें अपने बारे में सोचने का कभी मौका ही नहीं मिला। पर्सनल लाइफ की बात करें तो नंदा डायरेक्टर मनमोहन देसाई से वो बेइंतहां मोहब्बत करती थीं। देसाई भी उन्हें चाहते थे लेकिन बेहद शर्मीली नंदा ने मनमोहन को कभी अपने प्यार का इजहार करने का मौका ही नहीं दिया और उन्होंने शादी कर ली। मनमोहन की शादी के बाद नंदा तन्हाई और गुमनामी के अंधेरों में खो गईं। 



मनमोहन भी अपनी शादीशुदा जिंदगी में व्यस्त हो गए लेकिन कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी का निधन हो गया। इसके बाद मनमोहन ने फिर से नंदा के नाम मोहब्बत का पैगाम पहुंचाया। नंदा ने उसे कबूल कर लिया। उस दौरान नंदा 52 साल की हो चुकी थीं। 1992 में 53 साल की नंदा ने उनसे सगाई कर ली लेकिन किस्मत को शायद कुछ और ही मंजूर था। सगाई के दो साल बाद ही मनमोहन देसाई की एक हादसे में मौत हो गई। दोनों कभी एक नहीं हो पाए और नंदा अविवाहित ही रह गईं। नंदा की आखिरी फिल्म थी 'प्रेम रोग'।


इसमें उन्होंने पदमिनी कोल्हापुरी की मां का किरदार निभाया था। कहा जाता है कि नंदा जब भी बाहर जाती थीं तो वो सफेद साड़ी में जाती थीं क्योंकि वो मन ही मन मनमोहन देसाई को अपना पति मानती थीं। उनके निधन के बाद से नंदा काफी अकेली हो गई थीं। उन्होंने ज्यादा किसी से बात करना भी बंद कर दिया था। उनकी खास दोस्तों में माला सिन्हा और वहीदा रहमान थीं।


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