गैरों का सुख उसके बिगड़े मन को भाए कैसे -- कवि तारकेश्वर मिश्र जिज्ञासु

दीप जलाकर गीत खुशियों के गा लेंगे ! 


बिगड़ा हुआ सारा काम हम बना लेंगे ! 


तुम हैरान क्यों हो रहे हो इस ज़माने में ! 


हम ज़माने को अपने अनुकूल बना लेंगे !! 


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मेरी ज़िंदगी का दर्द उसे समझ में आए कैसे ! 


गैरों का सुख उसके बिगड़े मन को भाए कैसे ! 


संस्कार और अनुशासन तो है ही नहीं उसमें ! 


उसका दिल सुकून का एहसास पाए कैसे !! 


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मेरी खुशी का कोई पैमाना तो समझो ! 


बिगड़ा है किस कदर ज़माना तो समझो ! 


इंसानियत का पाठ मैं सिखाना चाहूं तुमको ! 


मगर तुम मेरे दिल का तराना तो समझो !! 


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मुझे घड़ियाली आंसू बहाना नहीं आया ! 


किसी को मुश्किल में फंसाना नहीं आया ! 


ज़माने के रवैये से बहुत एतराज है हमको ! 


कदम चल रहे हैं फिर भी ठिकाना नहीं आया !!


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हमारी ख्वाहिशों का मोल मत लगाना ! 


प्यार जता कर मुझसे दूरी मत बनाना ! 


बड़े क़ीमती हैं जज़्बात मेरे समझ लेना ! 


प्यार के रिश्तों को कभी ठेंगा मत दिखाना !! 


****************** तारकेश्वर मिश्र जिज्ञासु कवि व मंच संचालक अंबेडकरनगर उत्तर प्रदेश !


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