क्या दिल्ली मुंबई गुजरात से पलायन करने वाले मजदूरों की दुर्दशा का कारण वामपंथी है कौन होगा उनकी बर्बादी का जिम्मेदार, एक विचारोत्तेजक विवेचन


COPY


एक जमाना था .. 


कानपुर की "कपड़ा मिल" विश्व प्रसिद्ध थीं ।


कानपुर को "ईस्ट का मैन्चेस्टर" बोला जाता था।


कानपुर की फ़ैक्टरी के महीन सूती कपड़े प्रेस्टीज सिम्बल होते थे।. वह सब कुछ था जो एक औद्योगिक शहर में होना चाहिए।


मिल का साइरन बजते ही हजारों मज़दूर साइकिल पर सवार टिफ़िन लेकर फ़ैक्टरी की ड्रेस में मिल जाते थे। बच्चे स्कूल जाते थे। पत्नियाँ घरेलू कार्य करतीं । और इन लाखों मज़दूरों के साथ ही लाखों सेल्समैन, मैनेजर, क्लर्क सबकी रोज़ी रोटी चल रही थी।


फ़िर "कम्युनिस्टों" की निगाहें कानपुर पर पड़ीं.. तभी से....बेड़ा गर्क हो गया।


"आठ घंटे मेहनत मज़दूर करे और गाड़ी से चले मालिक।" कम्युनिस्टों ने यह नारा दिया।


ढेरों हिंसक घटनाएँ हुईं, 


मिल मालिक को दौड़ा दौड़ा कर मारा पीटा भी गया।


नया नारा दिया गया 


"काम के घंटे चार करो, बेकारी को दूर करो" 


अलाली किसे नहीं अच्छी लगती है. ढेरों मिडल क्लास भी कॉम्युनिस्ट समर्थक हो गया। "मज़दूरों को आराम मिलना चाहिए, ये उद्योग खून चूसते हैं।"


 "सुभाषिनी अली " यह मोहतरमा पहले लक्ष्मीसहगल और प्रेम सहगल की पुत्री सुभाषिनी सहगल थी। जवानी के दिनों में इश्क होना स्वभाविक है मगर जब विचारधारा कम्युनिस्ट हो तो इश्क किसके साथ हो रहा है यह सोचने की शक्ति खत्म हो जाती है । मोहतरमा ने मुजफ्फर अली से प्यार किया और सुभाषिनी अली बन गई उनके प्यार का हश्र सभी को मालूम था जवानी ढली और मोहतरमा का तलाक हो गया । कामचोरी और हरामखोरी सर चढ़कर बोला , कानपुर को सुभाषिनी अली के रूप में कम्युनिस्ट सांसद मिला।


अंततः वह दिन आ ही गया जब कानपुर के मिल मज़दूरों को मेहनत करने से छुट्टी मिल गई। मिलों पर ताला डाल दिया गया।


मिल मालिक आज पहले से शानदार गाड़ियों में घूमते हैं । उन्होंने अहमदाबाद में कारख़ाने खोल दिए। कानपुर की मिल बंद होकर ज़मीन जंगल हो गए। मिल मालिकों को घंटा फर्क नहीं पड़ा ..( क्योंकि मिल मालिकों कभी कम्युनिस्ट के झांसे में नही आए !)


कानपुर के वो 8 घंटे यूनिफॉर्म में काम करने वाला मज़दूर 12 घंटे रिक्शा चलाने और दिहाड़ी मजदूरी करने पर विवश हुआ .. कम्युनिस्टों के शासनकाल में बंगाल पूरी तरह बर्बाद हो गया। बंगाल की तमाम कारखानों में यूनियन बाजी हरामखोर कामचोरी स्ट्राइक आम बात हो गई। मिल मालिकों के साथ गाली-गलौज मारपीट आए दिन होने लगे।बंगाल में कम्युनिस्टों के द्वारा नारा दिया गया "दिते होबे, दिते होबे, चोलबे ना, चोलबे ना" नतीजा यह हुआ सभी कंपनियों में ताले लटक गए। अधिकांश कंपनियां अपने व्यवसाय को बंगाल से हटाकर गुजरात एवं महाराष्ट्र में शिफ्ट कर लिए।


कंपनियों में काम करने वाले मजदूरों के स्कूल जाने वाले बच्चे कबाड़ बीनने लगे... 


और वो मध्यम वर्ग जिसकी आँखों में मज़दूर को काम करता देख खून उतरता था, अधिसंख्य को जीवन में दुबारा कोई नौकरी ना मिली। एक बड़ी जनसंख्या ने अपना जीवन "बेरोज़गार" रहते हुए "डिप्रेशन" में काटा।


 


"कॉम्युनिस्ट अफ़ीम" बहुत "घातक" होती है, उन्हें ही सबसे पहले मारती है, जो इसके चक्कर में पड़ते हैं..! 


कॉम्युनिज़म का बेसिक प्रिन्सिपल यह है : 


"दो क्लास के बीच पहले अंतर दिखाना, फ़िर इस अंतर की वजह से झगड़ा करवाना और फ़िर दोनों ही क्लास को ख़त्म कर देना"


इन दिनों मज़दूर पलायन विषय पर ढेरों कुतर्क सुन रहा हूँ। मजदूरों के पलायन पर आज यही बाम पंथी लोग सबसे ज्यादा दुखी है जिनके कारण मजदूरों का अपने वतन से गुजरात महाराष्ट्र की ओर पलायन हुआ। सबसे ज्यादा मजदूर बिहार उत्तर प्रदेश एवं बंगाल के ही है। बिहार के मजदूरों का पलायन करने का एक बड़ा कारण लंबे समय तक जंगलराज होना एवं वामपंथी नक्सली हिंसा ग्रसित प्रदेश होना भी रहा है।


 लोक डाउन में सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की जिम्मेवारी थी कि मजदूरों को उचित सहायता प्रदान करें।कुछ राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने वाकई सराहनीय कार्य किए और कुछ राज्यों के मुख्यमंत्री जैसे केजरीवाल ने अपने तमाम पार्टी पदाधिकारियों के साथ मिलकर मजदूरों को सड़क पर ढकेलने का काम किया । अपना सर्वत्र लुटा कर गांव पहुंचे यह मजदूर अपने घरवालों और गांव वालों को कोरोना का प्रसाद बांट रहे हैं ।


  भारतवासी 70% रॉयल्टी देकर शराब तो पी सकते हैं मगर ₹5 प्याज का दाम बढ़ जाए तो सरकार को कोसते हैं यही काम मजदूरों ने किया । संकट की इस घड़ी में वह अपने और अपने परिवार को पोसने की बजाय मोदी को कोसने लगे। मजदूर वर्ग कल भी झांसे में थे और आज भी झांसे में है । इन्हीं वामपंथियों द्वारा तमाम तरह की अफवाहें फैलाकर उन्हें घर जाने के लिए बीवी बच्चों के साथ इस कड़ी धूप में सड़कों पर ढकेल दिया है। गांव में इनकी इतनी बड़ी जमींदारी थी तो यह लोग मजदूरी करने क्यों दिल्ली महाराष्ट्र और गुजरात गए थे। उन्हें इतनी भी अक्ल नहीं आई कि इस संकट की घड़ी में बंगलादेशी और रोहिंग्या अपनी और दर्जनों बच्चों को कैसे पाल पोस रहे हैं। 


यकीन मानिए करोना भी खत्म होगा और लोक डाउन भी हटे गा उस समय यह मजदूर जो अपना सबकुछ लुटा कर अपने गांव पहुंचे हैं उनके हाथ में कुछ भी नहीं रहेगा। यह जहां नौकरी कर रहे थे वहां उनकी जगह बांग्लादेशी रोहिंग्या नौकरी करते हुए मिलेंगे।


प्रस्तुति प्रेरक मिश्रा